Sadhana Shahi

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प्रारब्ध संँवरना होगा (कविता)स्वैच्छिक प्रतियोगिता हेतु 02-Mar-2024

दिनांक- 02,03,2024 दिवस- शनिवार स्वैच्छिक विषय- प्रारब्ध सॅंवरना होगा
प्रतियोगिता हेतु कविता

ना कोई है जग में रहता, सदा कुबेर की खान। छप्पन भोग जो एक दिन खाए, दुर्भिक्ष रूखी- सूखी का लो जान।

चाहे जितना ऊपर चढ़ लें, एक दिन नीचे आना है। ऊपर ना कोई सदा है रहता, नीचे ही प्राण गॅंवाना है।

फिर काहे का दंभ है मानव, और काहे का द्वेष। एक दिन सारा तज़ के धरा पर, जाना एक ही देश।

सुनो ऐ भैया! सुनो ऐ बाबू! फिर काहे का दर्प, मिट्टी से बने मिट्टी में मिलेंगे, कर लें जीवन में तर्प।

जिस दिन टूट बिखर जाएंँगे, पल भर घर में ना होगा ठिकाना। जिसकी खा़तिर किए छल- कपट, जीवन की सच्चाई ना जाना।

ईश्वर ने जो कुछ भी दिया है, सीखो तुम उसमें ख़ुश रहना। वक्त-बेवक्त समझ जो आए, सबको ही है एक रोज गुज़रना।

दुख- व्यवधान यदि आए तो, उससे ना मुझको डर लगता। अपना जब कोई रंग दिखाए, वह ही विह्लल मुझको करता।

सागर यदि विकराल रूप ले, तत्पर हो मुझे डुबाने को। उससे ना उद्विग्न मैं होती, सीखूॅं हुनर बच जाने को।

हालातों में दम ही नहीं है, तोड़ सके जो मेरी हिम्मत। लड़कर मुझसे थक जाएगा, कोसे वो अपनी ही किस्मत।

बिगड़ा आज तक़दीर हमारा, शीघ्र ही उसे सुधरना होगा। मेरे बुलंद हौसले से इक दिन, हाथ मिलाकर चलना होगा।

इसीलिए फल की चिंता बिन, अपने कर्म को करती जाऊंँ। एक दिन प्रारब्ध सुधर जाएगा, देख उसे हिय से हरषाऊंँ।

साधना शाही, वाराणसी

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5 Comments

Mohammed urooj khan

05-Mar-2024 12:00 PM

👌🏾👌🏾👌🏾

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बहुत ही उम्दा और संदेश देती हुई रचना

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Varsha_Upadhyay

02-Mar-2024 07:01 PM

Nice

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